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एक लेखक के तौर पर मैं सदैव इस प्रसंग पर विचार करने को विवश हो जाता हूं कि साहित्य लोकप्रिय पद्धतियों के अनुसार किसी निर्धारित विषय पर ही लिखी जाए, क्या इसकी कोई बाध्यता हैं? मेरी दृष्टि में किसी साहित्य के भाषीय परिपक्वता तथा उसके शाब्दिक अखंडता का मूल्यांकन एक तकनीकी दक्षता हैं, जो भाषा के शुद्धिकरण से संबंधित है, परन्तु इसका यह कतई अर्थ नहीं कि किसी विजातीय गुणों में दक्ष कोई व्यक्ति या संस्था साहित्य सार्थकता या उसके विवेचनात्मक संदर्भों की गंभीरता का निरूपण करने में सक्षम हो, क्योंकि भावों और विचारों के प्रवाह को सीमाओं में नहीं बाँधा जा सकता। वह तो निर्विवाद होती हैं। जहाँ सारे धैर्य समाप्त हो जाते है और बस कहने की अवस्था शेष रह जाती हैं, जिसमें अनुभवों की कटिबद्ध व तटस्थ अभिव्यक्ति समाविष्ट होती है और जो रचनात्मक शिखर के अपने प्रतिगूंज से आकाश-स्तंभों को स्पंदित करती है, वैसा साहित्य समृद्ध है और अंगीकार कर लेने योग्य हैं।


साहित्य समाज का प्रतिबिंब है और उस प्रतिछवि की स्पष्टता भाषा की शुद्धता पर निर्भर करती है, क्योंकि भाव भाषा के विशुद्ध प्रवाह में ही विचरण करते है; इसीलिए विचारों की दृष्टिगत निष्पादन की स्थिति में भाषा की सरलता और शुद्धता पर ध्यान देना आवश्यक हैं। अतः निश्चित ही कोई प्रकाशन साहित्य के भाषीय संरचनाओं का निरीक्षण तो कर सकता है, पर उसके विषयात्मक और अंतर्निहित अभिव्यक्ति की गंभीरता को परिभाषित करना किसी प्रकाशन के संपादकीय मानकों के सामर्थ्य से बाहर की वस्तु हैं। मूलतः अभिप्राय है कि हम साहित्य के किसी निश्चित विषयवस्तु की अनिवार्यता को निर्धारित नहीं कर सकते। हम यह तय नहीं कर सकते कि साहित्य कैसा हो? साहित्य तो कैसा भी हो सकता हैं। यह किसी नायिका की भूमिका से इतर एक दुखद वृतांत हो सकता है या प्रेम-प्रसंगों के संयोजन के विपरीत एक यथाचित्रण। यह जरूरी नहीं कि साहित्य किसी सर्वमान्य या प्रचलित धारणा पर ही केंद्रित हो। 


आज दुनिया में 'हिन्दी' भाषा की जो स्थिति है, उसके लिए समकालीन साहित्य की चयनात्मक प्रवृतियाँ उत्तरदायी है, क्योंकि उन्होंने साहित्य के प्रति एक निश्चित धारणा नियत कर ली हैं। वह कुछ नियमित विषयवस्तु में ही साहित्य की गरिमा देखते हैं। उन्हे इस तथ्य से कोई प्रयोजन नहीं कि इसमें कुछ सार का भी है कि निस्सार हैं। साहित्य के नाम पर मुनाफ़ेखोरी का यह गोरखधंधा संचालित करने वाले कुछ प्रतिष्ठान तो इस क्षेत्र में इतने प्रबुद्ध व प्रभावशाली हो चूके है कि वह साहित्य के स्थायी तथा बुनयादी मूल्यों को भी बदलने की क्षमता रखते हैं। 


वर्तमान साहित्य-शैली में प्रश्नात्मक निष्पत्ति व विषय व्यापकता का अभाव हो रहा हैं, जबकि साहित्य हमें समाज में घट रही घटनाओं के प्रति शाब्दिक और बौद्धिक सजगता प्रदान करता है तथा भविष्य के प्रति सचेत करता हैं। ऐसे में साहित्य के अंदर सामाजिक चेतना का अभाव एक संवेदनशील समस्या हैं। एक समृद्ध साहित्य एक समृद्ध राष्ट्र की पहचान हैं। जैसा कि 'रामधारी सिंह दिनकर' नें कहा है- "अंधकार है वहां जहां आदित्य नहीं, मुर्दा है वो देश जहां साहित्य नहीं।" 


जिस तरह इस देश में साहित्य की दिशा और संरचना को बदलने के साथ-साथ उसके स्वरूप को संकुचित करने का प्रयास किया जा रहा है, यह चिंताजनक है तथा इस संबंध में सामुदायिक प्रयासों की प्रतिबद्धता ही साहित्य के प्रति ऐसे 'व्यक्तिवादी' दृष्टिकोण से संभावित साहित्य विकृतियों को संरक्षित कर सकती हैं। वास्तव में, इस विषय पर 'राज्य' को भी विचार करना चहिए, क्योंकि किसी विचार की स्थायी अनिवार्यता गृहीत करने हेतु 'राज्य' अंतिम प्राधिकरण है तथा इसी क्रम में देश की रचनात्मक संभावनाओं को प्रोत्साहित करना भी 'राज्य' का कर्तव्य हैं। यदि हम इस संबंध में व्यक्तिगत प्रयासों की बात करे, तो हमे एक नए प्रकाशकीय मानकों से अधिमानित 'प्रकाशन' की तलाश करनी चहिए, जिसमे बाज़ार के साथ-साथ थोड़ा साहित्य भी हो।


अतः यदि आप साहित्य की किसी भी विधा में लिखते है और उसे प्रकाशित करवाना चाहते हैं, तो हम जल्द ही एक नवीन प्रकाशकीय मूल्यों के साथ प्रकाशन परंपरा की शुरुआत कर रहे हैं, जो कार्याधिनस्त हैं तथा अपने अंतिम चरण में हैं। ऐसी लेखन प्रतिभाएं जो समृद्ध तो है, पर उपेक्षित हैं या कुछ ऐसे संसाधनहीन लेखक, जिनके पास उनके कृतिओं को प्रकाशित करवाने का कोई उपयुक्त साधन व स्रोत नहीं है या जिनकी व्ययकता सीमित है, उनकी कृतिओं को हम न्यूनतम व्यय के साथ प्रकाशित व प्रसारित करने के संकल्पों पर ही इस 'प्रकाशन' की शुरुआत कर रहे हैं। जिसमें हम बाज़ार सुलभता को कम और साहित्य हित को ज़्यादा प्राथमिकता देंगे। 


निश्चित ही, किसी प्रकाशन के लिए बाज़ार माँगों व उससे संबंधित रणनीतियों को ध्यान में रखना आवश्यक है, पर इस आधार पर 'बाज़ार' किसी भी स्थिति में साहित्य के उपयुक्त प्रश्नों का स्थान नहीं ले सकता। अतः जैसे ही हम प्रकाशन, वितरण तथा मुद्रण की प्राथमिक प्रक्रियाओं से निवृत होंगे, सर्वप्रथम इसी वेबसाईट के मार्फत आपको सूचित किया जाएगा। तब-तक साहित्य विमर्श पर विचार करें। 


यदि आप एक अंशकालिक-(पार्ट टाइम) लेखक है और हमारी वेबसाईट-www.shivjicontext.com  के लिए लिखना चाहते हैं, तो आप हमारे ई-मेल पते- shivjicontexfeed@gmail.com पर अपनी कहानियाँ, कविताएं, कथेतर, चुटकुले, व्यंग, सामाजिक या राजनैतिक विषयों पर लेख, अन्य विषयों पर लेख, प्रहसन, यथावृतांत या किसी भी प्रकार की स्व-लिखित शाब्दिक-कृति हमें उक्त स्रोत के माध्यम से भेज सकते हैं। हम आपके लिखे शब्दों को पाठकों तक संप्रेषित करेंगे तथा आपके लेखन प्रतिभा को मुख्यधारा से संयोजित करने का प्रयास करेंगे।


मूलतः इस प्रकार हमने स्थानीय साहित्य को प्रोत्साहित करने व लेखक और पाठक के बीच एक नए संबंध स्थापित करने के ध्येय से इस वेबसाईट को मुक्त-संयोजन के लिए खुला छोड़ा हैं, जिससे कोई इच्छित लेखक जब चाहे जुड़ सकता है और इस वेबसाईट के लिए लिख सकता हैं। हम उनके कृति के सार्वजनिक निष्पादन के आधार पर श्रमहितों व साहित्य कला का सम्मान करते हुए, उन्हे प्रोत्साहन राशि भी निर्गत करेंगे तथा पाठकों में उनके कृति की प्रभावशीलता के विश्लेषण के आधार पर हम भविष्य में उनके शाब्दिक-संग्रह को प्रकाशित भी करेंगे। 


अतः निष्पक्षता तथा पारदर्शिता के साथ लिखें और भय तथा पक्षपात को अपने अभिव्यक्ति के बीच न आने दें। निश्चित ही, आपके भीतर एक उत्कृष्ठ लेखक की संभावनाएं हैं। कुछ भी लिखने से पूर्व राष्ट्रकवि मैथलीशरण गुप्त की एक पंक्ति को ज़ेहन में उतार लें-"आग्रह करके सदा सत्य का जहाँ कहीं हो शोध करो; डरों कभी न प्रकट करने में अनुभव जो तुम बोध करो"। 


                                                                                                 शुभकामनाओं सहित,

                                                                                                    Shivji Context