Short Story in Hindi | Funny story hindi | हिन्दी कहानियाँ |

 

Short Story in Hindi | Funny Story in Hindi | हिन्दी कहानियाँ |



साहित्य के प्रदत्त अभिव्यक्तियों की मर्मज्ञता व व्यवहारिक जीवन के दैनिक प्रेक्षण से अभिभूत हम अपने इस वेबसाईट पर कहानियों एवं लघु कथाओं की एक शृंखला की शुरुआत कर रहें हैं। जिसमें हम Funny Hindi Stories, Short Story in Hindi, Hindi Stories with Moral and Hindi Kahaniyon का प्रसारण करेंगे तथा आपके कथा-कहानियों के सरल, सुगम व सुरुचिपूर्ण पाठन में आपका सहयोग करने का प्रयास करेंगे।

 

 



प्रस्तावना

 

 

किसी भी वस्तु, घटना या गतिविधि का मनुष्य के जीवन अथवा उसके चेतना पर एक भिन्न प्रभाव आच्छादित होता है और ऐसे प्रभाव कई अर्थों में इंसान के जीवन-दृष्टि को अपेक्षाकृत अधिक शूक्ष्म बना देते है, परन्तु यह निर्भर करता है कि उस व्यक्ति की मानसिक अथवा भौतिक समन्वयता क्या हैं? अन्यथा वह विक्षिप्त रूप से ऐसी घटनाओं को आत्मसात तो करता है, पर उसमें संचायात्मक निरूपण की शक्ति नहीं होती। यदि इस व्यापकता की दृष्टि से देखे तो प्रत्येक मनुष्य के भीतर एक कथा-संग्रह है और उस संचायात्मकता की रोचक, मार्मिक तथा सारगंभित अभिव्यक्ति ही साहित्यिक रचनात्मकता हैं।

 

 

मनुष्य का व्यवहारिक जीवन तर्क प्रधान है और उसके पास वैचारिकता की शक्ति हैं। अतः इंसान अवलोकन करता है, मूल्यों-अवमूल्यों का निरीक्षण करता है और फिर सदृश्य अभिव्यक्ति, यही लेखन है, चाहे वह किसी भी साहित्यिक विधायों से संबंधित हो। एक कथाकार या साहित्यकार जो देखता है, अनुभव करता है, अपने निजी अथवा सार्वजनिक जीवन में, वही उसके किरेदारों व मुख्य भूमिकाओं में भी अभिव्यक्त होते हैं। अब अभिव्यक्ति में भी काँट-छाँट हो, सीमित का प्रयास हो, तो अभिव्यक्त करने वाला कैसे अपनी बात स्पष्टता के साथ कह पायेगा? परिस्थितियों के अनुरूप लिखने वाले कम से कम मेरे अनुसार तो लेखक नहीं हो सकते। वह तो सौदागर है जो परिस्थितियों के साथ एक लाभप्रद सौदा करने की कूटनीतिक प्रतिभा रखते हैं।

 

 

जब भी इस देश में अभिव्यक्ति की कोई बात आती है तो चर्चाएं व विमर्श तो जैसे अपरिहार्य हैं। जो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिये एक कीमत जैसा प्रतीत होता हैं। पता नहीं क्यों कलात्मक अभिव्यक्ति के लिये भी संप्रदाय, मजहब, आस्था और विभिन्न प्रकार के परमिताओं का ध्यान रखना आवश्यक हैं? जीवन में न्यूनतम प्रतिबंधों के बगैर प्रशासनिक व्यवस्था व समाज की अवधारणा संभव नहीं, क्योंकि इससे रहित न्यायोचित्त व्यवस्था स्थापित नहीं की जा सकती, पर अभिव्यक्ति वह है जो इन व्यवस्थाओं कों वैचारिक निरंतरता व शक्ति प्रदान करता हैं।

 

 

ये सारी चीजें सामाजिक व राजनीतिक संदर्भ रखती हैं, पर हमारे लिए ये सब कहना आवश्यक हैं, क्योंकि हम ऐसी तथाकथित परमिताओं के अनिवार्यता को कुछ ज्यादा महत्व नहीं देते। क्योंकि हमारा मानना है, मनुष्य की भावनाएं उसके आस्था से कम बल्कि उसके मुलभूत जरूरतों और उन माँगों से ज्यादा जुड़ी हैं, जिसकी उसे आवश्यकता हैं। किसी भूखे के लिए मंदिर और मस्जिद से रोटी ज्यादा महत्व की बात हैं। तो हम उनके लिए चीजें नहीं लिखते, जो इसे एक विमर्श की तरह देखते है। हम महत्व के लिए चीजें लिखते हैं और उन तक स्थानांतरित करने का प्रयास करते हैं जो ऐसे महत्व से अपने जीवन को परिवर्तित कर सके और उनके जीवन में चैतन्य, ज्ञान व तर्क की प्रतिष्ठा हों।

 

 

 

कहानी के संदर्भ में

 

 

इस कहानी के सभी पात्र, तथ्य एवं घटनाएं एक लेखक के कल्पनाओं व कथा चिंतन के प्रसंग की सीमाओं के कारण किसी समुदाय या खास पंथ से जुड़े लग सकते है, पर यथार्थ में यह मात्र एक कलात्मक प्रस्तुतीकरण हैं, जिसका संबंध कहीं न कहीं सामाजिक व धार्मिक अनियमितताओं से तो है, पर यह लेखक के विशुद्ध कल्पनाओं का परिणाम हैं।

 

 

 


*मौलाना मंसूर और सलमा:- प्रस्तुत 'कहानी' एक ऐसे धार्मिक विशेषाधिकार की निरर्थकता को उजागर करती है, जिसका खास धार्मिक अर्थ तो है, पर इसके भ्रांत व स्वार्थपूर्ण उपयोग से किस प्रकार कोई समाज की अज्ञानता के कारण अपने हितों को पोषित कर सकता है और फिर भी वह लोगों के आस्था में अस्तित्वमान रहता हैं। कहानी का दूसरा पहलू यह स्पष्ट करता है कि आस्था और धर्म का अतिवाद समाज की बौद्धिक उन्नति की चिंताओं को और अधिक सघन करता हैं। किस प्रकार लोग निष्पक्ष व्यक्ति से ज्यादा धर्मगुरु और बाबाओं की सुनते है और फिर मरीचिका के शिकार होते हैं तथा जीवन में गलत मार्गदर्शन के कारण आध्यात्मिक पतन को फलीभूत होते हैं।


 

 

 

 

मौलाना मंसूर और सलमा

 

 

पुश का महीना था। अर्धरात्रि की बेला थी। चारों ओर घना अँधेरा था। मौलाना मंसूर दबे पाँव से अपने प्रेमिका सलमा के घर के पास पहुंचते हैं। चूंकि घना अँधेरा था और कोई देख न लें इस बात का डर भी, इसलिए मौलाना मंसूर 'सलमा' के घर के पास छिपकर चारों तरफ देखते है कि कहीं कोई देख तो नहीं रहा।


कुछ देर चारों तरफ देखने के बाद उनकों पूरा विश्वास हो जाता है कि यहाँ कोई नहीं है।


सलमा का पति अफ़रोज मौलना मंसूर के बचपन का मित्र था। उसके बेटे सलमान को भी मौलाना मंसूर मदरसे में धार्मिक तालीम देते थे। अफ़रोज अपने घर से सात किलोमीटर दूर एक कारखाने में नौकरी करता था। सलमान पिछले चार दिनों से अपने ननिहाल गया हुआ था और घर में सिर्फ अकेली सलमा थी। पता नहीं ये मौलाना साहब की नजर-ए-इनायत थी या कोई मुसलसल ख्वाहिश, पर सलमा से जुदाई के वक्त अब खत्म हो चुके थे। सलमा के साथ चरम सुख और काम-प्रेरणा की मधुर कल्पनाओं में मुग्ध मौलाना मंसूर मन ही मन हूर-ए-मोहब्बत की हर्फ़ दुहराने लगें।



जब मौलाना मंसूर अपनी रंगीन कल्पनाओं से निवृत हुए तो उन्होंने देखा कि सलमा के घर का एक दरवाजा थोड़ा-सा खुला था। मौलाना मंसूर अपने आने की सूचना पहले ही सलमा को फोन कर दे चुके थे इसिलिये सलमा ने दरवाजा थोड़ा-सा खुला छोड़ रखा था। पूरी तरह से आश्वस्त होने के बाद मौलाना मंसूर तीन-चार लंबी साँसें लेते है और इसके बाद वह इधर-उधर देखते हुए सीधे सलमा के घर में प्रवेश लेते है तभी दरवाजे के पास अहाते में बंधी एक भैस उनके पेट में अपना सींग लगा देती है और वह जमीन गिर पड़ते है। शायद कोई और दिन होता तो मौलाना अपने गंभीर दर्द को अभिव्यक्त करते, पर ऐसी आपत्तिजनक स्थिति में चीखना या शोर करना उनके धार्मिक छवि को बिगाड़ सकत थी इसिलिये मौलाना मंसूर सारे सितम जब्त कर गए।


उनके गिरने की आवाज सुनकर सलमा दरवाजे से बाहर निकलती है और कुछ कहने से पहले मौलाना साहब की खामोशी को समझकर उनका अनुसरण करती हैं।

सलमा आहिस्ते से उनको उठती है और वह सलमा को पकड़कर खड़ा होने का प्रयास करते हैं।

      “मैंने कहा था न कि इस भैस को अफ़रोज से कहकर बिचवा दों। मेरे पास इसके अलावा इस भैस को बाँधने के लिए और कोई जगह नहीं है, पर तुम्हारे कान पर जू तक न रेंगा।“ ‘सलमा ने कहा।‘

     “ये भैस जान पर आ जाएगी मैंने ये कहा सोचा था।“ ‘मौलाना मंसूर ने कहा।‘

     “चलों मैं तुम्हें घर तक छोड़ देती हूं।“

मौलाना मंसूर अपना एक हाथ पेट पर और दूसरा सलमा के कँधे रखकर अपने घर की तरफ चल देते हैं।



दूसरे दिन

 

मदरसे में हजारों की संख्या में लोग उपस्थित थे। मौलाना मंसूर ने अपने हाथों में माईक लेकर किसी तजुर्बेदार धर्मगुरु की तरह तकरीर देना प्रारंभ किया। उन्होंने वहाँ मौजूद लोगों से कहा- कल रात मेरे सपने में अल्लाह के फरीस्ता आए थे। उन्होंने मुझसे सपने में यह कहा कि अल्लाह और उसके फरीस्तें में यकीन रखने वाले सभी मोमिन और अल्लाह के बंदे मुर्रा नस्ल की भैस पालन बंद कर दे यह गैर-इस्लामिक है। इसिलिये मैं आपलोगों से ये दरख्वास्त करता हूं कि अल्लाह के फ़रमान की तामील करे और मुर्रा नस्ल की भैस पालन बंद कर दे यह 'हराम' हैं। ‘आमीन’



 

   

तीसरे दिन

 

अफ़रोज अपनी मुर्रा नस्ल की भैस लेकर विवेका पहलवान के फॉर्म हाउस पर पहुँचता है उसके साथ मौलाना मंसूर भी थे। रोजाना की भांति दंड बैठक का अभ्यास कर रहे विवेका पहलवान की नजर जैसे ही अफ़रोज पर पड़ी वह अपना अभ्यास छोड़कर अफ़रोज के पास जाता है।

      “विवेका मुझे तुमसे कुछ काम था”। ‘अफ़रोज ने कहा’।

      “वो क्या”? ‘विवेका नें पूँछा’

      “तुम ये भैस रख लों। तुम्हें जो कीमत समझ में आए दो-चार दिन के अंदर मुझे दे देना”।

      “लेकिन यार मेरे पास तो पहले से ही एक हजार भैसें हैं”।

      “देखों विवेक, जब तुम एक हजार भैसें रख सकते हो तो एक और भैस भी रख सकते हों। तुम मेरे बचपन के मित्र हो इसिलिये मैं तुम्हारे पास आया था। मैंने पहले ही तुमकों ये कह दिया था कि तुमको जो कीमत समझ में आए दे देना, अन्यथा ऐसे भी रख सकते हों”।

      “मैं तुमकों इसकी पूरी कीमत दूँगा, लेकिन मुझे अभी तक ये समझ में नहीं आ रहा है कि तुम इस भैस को आखिर बेचना क्यों चाहते हों? मैंने यह सुना है कि यह भैस दूध भी ठीक-ठाक देती है और वफादार भी है, दरवाजे पर बांधने से किसी को अंदर भी नहीं आने देती हैं”।

 

इतना सुनते ही मौलाना मंसूर का चेहरा प्रतीकात्मक स्मृतियों के प्रभाव से विविधरंगी होने लगा। मौलाना मंसूर के चेहरे की भावों को समझकर विवेका नें व्यंगात्मक स्वर में बोला।

      “कहीं ये मौलाना साहब के सपने और फ़तवें का असर तो नहीं। शुक्र है कि मौलाना साहब ने सपने में कुछ और नहीं देख लिया”।

      “तुमको जो समझना है समझो पर पहले ये भैस पकड़ों”। ‘अफ़रोज झुँझलाते हुए बोला’

      “अरें भाई! दिल पे क्यों ले रहे हों”। ‘विवेका नें कहा’

 

विवेका सें विदा लेकर अफ़रोज और मौलाना मंसूर वहाँ से घर की ओर चल देते हैं। कुछ क्षण बाद मौलाना मंसूर की स्तब्धता देखकर अफ़रोज उनसे कहता हैं।

     “मौलाना साहब विवेका की बातों का बुरा मत मानिएगा, क्योंकि उसकी बुद्धि अभी घुटने में है, पहलवान जो ठहरा”।

     “मुझे मालूम हैं”। ‘मौलाना मंसूर नें कहा’

     “इस मुर्रा भैस की काली छाया से बचने के लिए मुझे क्या करना होगा”?

     “इसकी काली छाया को दूर करने के लिए कम-से-कम साठ दिन तक मेरा दुआ किया हुआ पानी घर में छिड़कना होगा। तब तक तुमको और सलमान दोनों को अपने घर से दूर रहना होगा”। ‘मौलाना मंसूर नें कहा’

     “साठ दिन क्या हम और सलमान कम से कम नब्बे दिन तक घर से दूर रहेंगे। आप आज शाम वो दुआ किया हुआ पानी बोतल में भरकर सलमा तक पहुँचा दीजिएगा। जब तक हम और सलमान घर से दूर रहेंगे, तब तक आप मेरे घर जाकर सलमा पर दुआ भी करते रहिएगा। आप ये एक हजार रुपया दुआ किए हुए पानी के लिए रख लीजिए। मैं यहीं से काम पर चला जाता हूं”।

    “मौलाना मंसूर ना-ना कहते हुए वह पैसा अपनी जेब में रख लेते है और प्रेम-प्रसंग की विविध मुद्राओं की हर्ष-कामनाओं में मग्न मन ही मन यह सोचकर खुश होते है कि सलमा के साथ मजे लेने का शायद इससे और अच्छा मौका नहीं मिल सकता हैं। मौलाना मंसूर अपने मंशूबों के कामयाबी की सुगंध से रास्तें बनाते सलमा के घर की ओर चल देते हैं”।

 

 

 

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