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भूमिका
मित्रों! आज हम इस पोस्ट में कुछ
भावनात्मक संवेगों के साथ एक ऐसे संसार की यात्रा करेंगे, जहाँ जीवन के सभी
वास्तविक-अवास्तविक पहलुओं का मूल्यांकन आपके जीवन-दृष्टि को समृद्ध करती है,
क्योंकि जीवन के सभी प्रसंग विजय-पराजय, सुख-दुःख, द्वंद-अपमान, हर्ष व वेदना आपके
अंतर्संग्रह की परिणति है और इसके पार्श्व अनुभवों का ज्ञान अपको तभी हो सकता है, जब आप अपने अंतर्मन की गहराईओं में विचरण करेंगे, अर्थात स्वयं की यात्रा,
जहाँ आप विराजमान है, उन्हीं भावनाओं के
भीतर जहाँ जीवन के समग्र अभिप्रायः निहित है।
एक समृद्ध जीवन की खोज में व्यवहारिक
कठोरता तथा स्पष्टता का भान प्रमुख दक्षता है उस साध्य के लिये, जो अपेक्षित है।
आध्यात्मिक अर्थों में समृद्ध जीवन की अनिवार्यता इससे कदाचित भिन्न है, पर किसी
आरंभिक योग्यता या बिन्दु के बगैर मूल को आत्मसात कर पाना संभव नहीं।
अतः सांसारिक सत्यों का संबंध जीवन के
मौलिक सत्यों से संयुक्त है और इसिलिये भावनाओं की प्रमुखता को हमें अपने जीवन में
प्राथमिकता देने की जरूरत है। वास्तव में प्रमुख भावनाएं वह होती है, जो आपको
एकरूपता का आभास करती है और विश्व के साथ आपके एक अभिन्न संबंध की महत्ता को
दर्शाती है, क्योंकि बात वेदना की हो या हर्ष की, आनंद की हो या दुःख की, भावनाएं
तो एक ही हैं।
मुलरूप से भावनाओं के समृद्ध संकल्प से
परस्पर मनुष्यों के विकृत संबंधों को पुनर्संयोजित किया जा सकता है जो एक ऐसी
काव्यधारा में निहित है, जिसमें निष्पक्षता, पारदर्शिता तथा प्रबल संवेग हो। यदि
मनुष्य की भावनाओं में उसकी विसंगतिओं प्रतिबिंबित किया जा सके, तो एक स्वीकृति आती
है, जो व्यक्ति में एक अपूर्व परिवर्तन की संभावनाओं को विकसित करती है और यही एक
प्रगतिशील व प्रभावशाली लेखन परंपरा का मूल उदेश्य हैं।
मूलतः भावनाओं पर काव्य का प्रभाव अन्य
साहित्यिक प्रणालिओं की अपेक्षा अधिक होती है, क्योंकि यह स्वभावतः बोध-वृति पर
आधारित होती हैं और इसिलिये आज हम इस पोस्ट में कुछ मौलिक कृतिओं के उद्धरण के
साथ-साथ उसके भावों की स्पष्टता पर विचार करेंगे तथा इसकी अंतरंगताओं को अपने
दैनिक जीवन में आत्मसात करने का प्रयास करेंगे।
कविताएं
*गर्भ की महानता:- प्रस्तुत ‘कविता’ एक क्षण में घनीभूत मातृ-प्रसंग और गर्भ की
महानता से अभिप्रेत है तथा जीवन प्रस्फुटन के पूर्वावस्था में अपने संभावित
निष्पादन व योग्यताओं के संदर्भ में जीवन के समक्ष कुछ यक्ष प्रश्नों का प्रतिपादन
करता है और यह सुनिश्चित करने का प्रयास करता है कि वह परिणत होने के उपरांत जीवन
के कुछ अनिवार्य शर्तों के प्रति निष्ठावान हो सकेगा या नही, जैसा कि औसत लोग आज
कर रहें हैं। मातृऋण के प्रति अनुगृहीत होना, किसी नैतिक अनिवार्यता की अपेक्षा,
नैसर्गिक अधिक है। क्योंकि जब वृक्ष फलों का ध्यान रखता हैं, तो फलों को भी वृक्ष
का ध्यान रखना होगा। क्योंकि फलों में आक्रशन और शोभा तभी है, जब वह वृक्षों की
टहनियों से जुड़े है, इससे पृथक होकर दोनों अपनी अकृष्टता खो देंगे।
अतः प्रस्तुत है एक ‘कविता’ जो पूरी
तरह मातृ-संवेदना, उत्कृष्टता, विश्वास और उसके उत्सर्ग को समर्पित है, तो पढ़ें और
भावुकता के सत्यों को जीवन के निहित सत्यों से प्रेरित होने दें।
गर्भ की महानता
“गर्भ अभिमान है मुझे तुझ पर,
अपितु लेश विनय चहूँगा।
सोच लें बीज रचन से पूर्व, क्या
मैं रोपण लायक बन पाऊँगा।
गर्भ अभिमान है मुझे तुझ पर, अपितु
लेश विनय चाहूँगा।“
“मुझमें ऐसी अंकुरित उदारता भर दें,
उदय हो सकूँ धारिणी के हर्ष-प्रदीप्त
नेत्रों के संग, अस्त हो सकूँ उसके
स्वर्गामय आँचल के संग। वांछित हूं मैं
तेरे प्रणय-प्रत्युत्तर का, उत्प्रेक्षा है
तुझे आत्मसात कर पाऊँगा। गर्भ अभिमान
हैं मुझे तुझ पर, अपितु लेश विनय
चाहूँगा।“
“उसके आँचल पर लगे क्लेश को अपने
छोटे पदचिन्हों में समेटकर, उसे
सत्यता का सम्मान दिला सकूँ, वो दम हो इन
बाजुओं में, जिससे उसके अमिट
दुःखों को मैं अपने कंधे चढ़ा सकूँ। है ये
अंतिम विनय पुनः लौट न पाऊँगा।
गर्भ अभिमान है मुझे तुझ पर, अपितु लेश
विनय चाहूँगा।“
प्रस्तुत है द्वितीय ‘कविता’ जो एक माँ
के भावुकतापूर्ण प्रतिज्ञा का सजीव चित्रण हैं। जिसमें एक माँ के उत्सुकता, प्रणय,
आह्लाद और वात्सल्य के पराकाष्ठा की मार्मिक अभिव्ययक्ति की गयी हैं।
*मातृ-प्रतिज्ञा :- प्रस्तुत ‘कविता’ मुख्यरूप सें मातृ संवेदना का एक मार्मिक
प्रस्तुतीकरण है, जहाँ एक माँ अपने मातृत्व के गर्भ व प्रभा से अभिभूत है तथा
भविष्य में आने वाले एक नवीन जीवन का अभिवादन करती है। तदुपरांत यह संकल्प लेती है
कि वह उसके हेतु अधिकृत संभावनाओं को सुनिश्चित करेगी। यदि इस काव्य के केन्द्रीय
तत्वों की बात करें तो यह मातृ-आकांक्षा, संकल्प तथा उस स्त्री गरिमा से संदर्भित
है, जहाँ सृजनात्मकता व परिपक्वता की सहयोगिक भूमिकाएं आवृत्त हैं।
मातृ-प्रतिज्ञा
“जो हो लाख वेदना तुझे इस बाजार का भ्रमण
करूँगी। मर जाऊँ तेरे दर्शनांछित, फिर
भी इस जगतखेल में तुझे तेरा पात्र दिलाऊँगी।
संकल्प है मुझे तेरे धरण आगमन का,
मैं तुझे निष्क्लेश प्रामाणिक पुत्र बनाऊँगी ।“
“मुझे असंख्य अर्थाभाव हो, परन्तु तुझे
कुलीनता का विनोद दिलाऊँगी, तूँ नारावतार
हो या मदावतार उसी रूपवत् तुझे
अपनाऊँगी। संकल्प है मुझे तेरे उस हर्षित,
निर्दोष अनुपता का, मैं तुझे निष्क्लेश
प्रामाणिक पुत्र बनाऊँगी।“
“धिक्कार! कभी न करना मेरे विछोह का ऐ
मातृ-वंचित संतान! तेरे अंतर्मन
हृदयवसंत के कान्ति में, मैं सदैव विराजमान
हो जाऊँगी। संकल्प हैं मुझे तेरे उस
नीरवत् निर्मल निश्च-प्रवाहित हृदय वेगों का,
मैं तुझे निष्क्लेश प्रामाणिक पुत्र
बनाऊँगी।“
*नोट:- उल्लेखित कृतियाँ इस प्लेटफॉर्म से संयोजित लेखकों के निजी रचनात्मकता व व्यक्तिपरकता से उद्धृत हैं। जिसका किसी अन्य के मौलिक कृतियों की अनुकरणीयता से कोई भी प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष संबंध नहीं हैं। अतः हम किसी भी स्थिति में, किसी दूसरे के रचनाओं को विरूपित करने, आंशिक रूप सें प्रतिपादित करने या प्रतिछवि बनाने के विचारों के विरुद्ध एक विशुद्ध लेखन परंपरा के पक्षधर हैं। इसके अतिरिक्त और अन्य किसी असुविधा के लिए हम क्षमायाची हैं। "धन्यबाद"
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